पारित होने के 15 साल बाद हिमाचल में ‘वन अधिकार कानून’ अन्धकार में!

दिसंबर 2006 – सर्दियों के मौसम में – 15 साल पहले दिल्ली की सड़कों पर देश के आदिवासियों, वन श्रमिकों और वन निवासियों ने एक मांग को ले कर डेरा जमाया था – वन अधिकार कानून लागू करो। दशकों से वन भूमि पर लागू कठोर वन प्रतिबंधों ने जंगलों में और उसके आस पास रहने वाले लोगों को चोर और अतिक्रमक का गलत दर्जा दिया और इसके चलते इन पर बेदखली की तलवार हमेशा लटकती रही। उसका तोड़ यही था कि एक ऐसा कानून इस देश में बने जो वन भूमि पर आधारित समुदायों को वन भूमि के उपयोग और प्रबंधन में बराबर का हकदार माने। 13 दिसंबर 2006 को भारत की संसद में पेश होने के बाद, वन अधिकार कानून 18 दिसम्बर को पारित किया गया।   आज, पारित होने के 15 साल बाद भी, एक ऐसा कानून जो कि हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य की जनता की आजीविका और जीवन को सुरक्षित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है उससे यहाँ की जनता बेखबर है। इस कानून, जिसको FRA या वन अधिकार कानून के नाम से जाना जाता है, इसका उद्देश्य क्या और लोगों को किस प्रकार के अधिकार इस में मिल सकते हैं वो आम जनता कैसे जान सकती है जब तक यहाँ के सरकारी नुमायेंदे और जन प्रतिनिधि भी इस कानून को लेकर भ्रमित हैं और यहां तक कि इसको खत्म करने की बात कर रहे हैं।  

पूरे भारत में जहां 20 लाख वन अधिकार दावे मंज़ूर किये गये उनमें हिमाचल प्रदेश का योगदान केवल 164 है और आज तक हिमाचल में केवल 2700 दावे पेश किए गए हैं. ऐसा  नहीं है कि इस कानून के लिए जनता के बीच से मांग उठी ही नहीं . बल्कि कानून के लिए आवाज  2012 के बाद उठने लगी थी  और 2016 से इस अभियान में काफी तेज़ी आई. सबसे अधिक दावे जन जातीय क्षेत्र किन्नौर और लाहौल से पेश हुये. यह केवल इसलिए नहीं की यहाँ की जनता इस कानून के बारे में अधिक जागरूक थी पर इसलिए भी कि कानून सबसे पहले हिमाचल के जन जातीय जिलों में लागू किया गया. पर इसके बावजूद आज तक FRA की कार्यवाही किसी भी जिले में सिरे नहीं चढ़ी. आइये एक नज़र डालते हैं अभी तक की की कहानी पर.

हिमाचल में FRA को ले कर उदासीनता की क्रोनोलोजी

  • 2012 कानून केवल जन जातीय क्षेत्र में लागू

FRA अधिनियम और नियामावली को राष्ट्रपति की मोहर 2008 में मिली और इसे हर राज्य (उस वक्त जम्मू-कश्मीर को छोडकर) ने लागू करना था. परन्तु हिमाचल सरकार ने इस कानून को केवल जन जातीय क्षेत्रों में लागू करने का फैसला लिया – सरकार का यह मानना था कि जनजातीय इलाके में क्रियान्वयन के अनुभवों का विश्लेषण कर के बाकी राज्य में लागू करना है परन्तु इस से यह ग़लतफहमी फैली कि कानून केवल जन जातियों के लिए है जबकि कानून स्पष्ट तौर पर ‘अन्य परम्परागत वन निवासियों’ के लिए भी था.‘अन्य परम्परागत वन निवासी यानी वो सारे समुदाय जो अपनी रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए वन भूमि पर आश्रित हों और पिछली तीन पीढ़ियों से क्षेत्र में निवास करते हों. इसका अर्थ है हिमाचल, जो कि 90% ग्रामीण समाज हैं, में रहने वाले अधिकतर लोग इस कानून में पात्र दावेदार होंगे.इसके चार साल बाद 2012 में जन जातीय मंत्रालय से लगातार दबाव के चलते FRA पूरे राज्य में लागू करने का फैसला लिया गया.कानून के क्रियान्वयन में विलम्ब का यह एक मात्र कारण नहीं बना.

  • मोहाल की जगह पंचायत सत्र पर गलत गठित ग्राम सभा

2012 में ग्राम सभाओं का गठन ही गलत तरीके से पंचायत स्तर पर किया गया. इसको 2015-16 में सुधारा गया और मौजा (रेवेन्यु विलेज) स्तर पर ग्राम सभा तथा 17503 वन अधिकार समितियों (FRCs) का लोगों को कानून की जानकारी दिए बिना ही गठन कर दिया गया. पर इसके बावजूद कानून के बारे में प्रशिक्षण और जानकारी के अभाव में प्राशासन के हर स्तर और ज़िम्मेदार विभागों में FRA को ले कर कई गलतफेह्मियां बरकरार रहीं.

  • उच्च स्तरीय अधिकारियों ने किया कानून की प्रासंगिकता को चुनौती

सरकार के अनुसार ‘हिमाचल में बंदोबस्ती की प्रक्रिया अंग्रेजों के राज में हो चुकी है तो राज्य में वन अधिकार कानून की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि सारे अधिकारों को मान्यता मिल चुकी है’. हिमाचल में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया 100 साल पहले 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हुई थी और इस बीच वन भूमि के उपयोग और उस आश्रित जनसंख्या में कई परिवर्तन आये हैं. साथ ही बंदोबस्ती में वन भूमि पर उपयोग के लिए रियायतें/छूट/कंसेशन दिए गये थे जिन्हें FRA ‘अधिकारों’ के रूप में कानूनी मान्यता प्रदान करता है. यही बात जन जातीय मंत्रालय की सचिव  लीना नायर के कार्यकाल में विस्तृत तरीके से राज्य सरकार को समझाई गयी और इसके लिए लिखित में बार-बार स्पष्टीकरण दिए गये. पर राज्य सरकार अपने मत पर अडिग रही.

  • दावेदारों की पात्रता पर सवाल

वन अधिकार कानून के तहत दावेदारों की पात्रता को ले कर कई भ्रम थे जो कि SLMC की बैठकों में बार बार चर्चा में आये और SDLC तथा DLC द्वारा दावों पर जताई गयीं आपत्तियों में भी. उदाहरण के तौर पर ‘हिमाचल में ट्राईबल समुदायों को वन निवासी न मानने से ले कर, अन्य परम्परागत वन निवासी का कब्ज़ा 75 साल से पहले का होना ज़रूरी है वरना दावा अमान्य होगा’. परन्तु इन सभी मुद्दों को जन जातीय मंत्रालय ने कानून की धाराओं का हवाला देते हुए एक-एक कर के स्पष्ट किया. इसके बावजूद आज भी प्रशासनिक व्यवस्था के बीच यही सवाल मंडरा रहे हैं. इसके अलावा ये हवा भी बनाई गयी कि दरअसल सामूहिक नहीं बल्कि व्यक्तिगत वन अधिकारों को मान्यता देने में समस्या है क्योंकि इसमें कई बड़े अतिक्रमण वाले जैसे शिमला और किन्नौर के सेब बगीचों  के लोग भी नाजायज़ फायदा उठाने कि कोशिश कर रहे हैं. इसके साथ उच्च न्यायालय के माध्यम से अतिक्रमण हटाने के आदेश 2016 और 17 में आये. जबकि कोर्ट में पेश की गयी अतिक्रमकों की सूची में भी यह स्पष्ट था कि वन भूमि पर अधिकतर कब्ज़े 10 बीघा से कम वाले हैं. इस तथ्य पर और रौशनी डालने के लिए 2018 में किन्नौर में हमने एक अध्ययन भी किया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि जो IFR के दावे भर रहे हैं वो ज्यादातर दलित और बहुत कम भूमि वाले परिवार हैं जिनके पुराने नौतोड़ के मामले लटके पड़े थे.

  • वन अधिकार कानून का मात्र एक प्रावधान (3(2)) वन भूमि हस्तांतरण के लिए इस्तेमाल

विडंबना की बात तो यह है कि एक तरफ सरकार लगातार FRA के अंतर्गत निजी और सामूहिक अधिकारों के दावों की प्रासंगिकता और पात्रता को चुनौतियां दे रही थी वहीं दूसरी तरफ तेज़ी से इसी कानून की धारा 3(2) को लागू करने में बड़ी तत्परता दिखाई. इस प्रावधान के अंतर्गत सरकारी विभागों के माध्यम से 13 प्रकार की छोटी मूलभूत सेवाओं के लिए 1 हेक्टेयर तक की वन भूमि के हस्तांतरण के लिए ग्राम सभा द्वारा NOC दी जा सकती है और DFO द्वारा मंज़ूरी. 2019 तक इस प्रावधान के तहत 1959 परियोजनाओं  को मंज़ूरी मिल चुकी थी.

  • न्यायालय का नकारात्म रवैया

2019 में इस प्रक्रिया के सामने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से अड़चन खड़ी हो गयी  जब वी. पी. मोहन नामक एक सेवानिवृत वन अधिकारी द्वारा कोर्ट को पेश की गयी रिपोर्ट में इस प्रावधान पर सवाल उठाया गया. सुप्रीम कोर्ट ने वी. पी. मोहन रिपोर्ट की इस बात का सज्ञान लिया की 3(2) के तहत किये जाने वाले हस्तांतरण की वजह से राज्य में वनों का दोहन बढ़ा है. बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ ढील देते हुए यह आदेश दिया कि वन हस्तांतरण के सभी मामले अब मंज़ूरी से पहले कोर्ट के सामने पेश किये जायेंगे. कोर्ट के इस आदेश ने राज्य में वन अधिकार कानून की धारा 3(2) के क्रियान्वयन में स्पीड ब्रेकर का काम किया. और यह सुप्रीम कोर्ट का FRA के प्रति नकारात्मक रवैया जस्टिस अरुण मिश्रा के कार्यकाल में देश को देखने को मिला जब कोर्ट ने फरवरी 2019 में यह आदेश पारित किये कि वन अधिकार कानून में जिनके दावे खारिज किये गये हैं उनकी बेदखली होनी चाहिए. यह निर्देश 16 राज्यों को दिए गए थे जिनमें कम से कम 20 लाख दावेदार परिवार प्रभावित होते (तक़रीबन 60 लाख लोग) जो की इस कानून के तहत आदिवासी या अन्य-परंपरागत वन-निवासी की श्रेणी में हैं. कोर्ट का यह निर्णय कमज़ोर तथ्यों पर आधारित था और अन्यायपूर्ण भी. 28 फरवरी को न्यायालय ने अपने आदेश पर रोक लगा दी और सभी राज्यों से दावों के खारिज होने की प्रक्रिया पर विस्तृत जवाब माँगा. इस केस की सुनवाई अभी चल रही है.

  • बड़ी विकास परियोजनाओं के रास्ते में रोड़ा

वैसे तो सरकार की मंशा कानून को ले कर तब स्पष्ट हो गयी थी जब 2009 में तब मुख्य मंत्री प्रेम कुमार धूमल ने पर्यावरण मंत्रालय को एक पत्र के ज़रिये FRA के प्रावधानों में ढील देने की अपील की. धूमल ने मंत्रालय द्वारा बड़ी विकास परियोजनाओं के लिए वन हस्तांतरणसे पहले FRA के तहत मांगी जाने वाली प्रभावित गाँवों की ग्राम सभा की NOC को विकास के रास्ते में रोड़ा बताते हुए यह मांग की थी. हालांकि यह बात आगे नहीं बढ़ पायी और दोनों, पर्यावरण मंत्रालय तथा जन जातीय मंत्रालयो ने अपनी भूमिका स्पष्ट करते हुए राज्य सरकार को इस प्रावधान में ढील नहीं दी. बल्कि 2017 में वन संरक्षण अधिनियम 1980 के नियमों ने इस प्रावधान को और पक्का करते हुए किसी भी वन हस्तांतरण से पूर्व FRA के अंतर्गत गठित प्रभावित ग्राम सभाओं की NOC को अनिवार्य किया. इसके पीछे दो मुख्य उद्देश्य थे – पहला कि वन अधिकार कानून के तहत ग्राम सभा को दिए गये वन संरक्षण के प्रावधानों को मज़बूत करना और दूसरा की वन हस्तांतरण के चलते प्रभावित जनता को बिना मंज़ूरी अपने अधिकारों से बेदखल या वंचित न होना पड़े. हिमाचल प्रदेश जहां बड़ी जल विद्युत् परियोजनाओं के अंधाधुंध  विकास ने हजारों हेक्टेयर वन भूमि नष्ट की है और कई क्षेत्रों में लोगों की आजीविका भी – यह प्रावधान जनता के हितों की रक्षा के लिए अत्यंत ज़रूरी था.

  • चंबा और मंडी मोडल: शून्य दावों का खेल

परन्तु राज्य सरकार इस प्रावधान से छूट के चक्कर में वन अधिकार कानून की उपयुक्तता (मूल उद्देश्य ) पर ही सवाल उठाती रही. तर्क वितर्क चाहे कुछ भी हो पर असल मुद्दा तो ज़मीन पर सरकारी नियंत्रण रखने का है ताकि जब चाहे बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को विकास के नाम पर ज़मीन हस्तांतरण बिना बाधा के हो सके – और सबसे बड़ी बाधा FRA के पात्र दावेदार हैं. यह इस बात से स्पष्ट होता है कि 2016 में जहां सरकार एक तरफ कानून ढंग से लागू करने के लिए खुद को प्रयासशील बता रही थी वहीं मंडी और चंबा जिलों में प्रशासन ने गावों से यह प्रस्ताव लिखवा कर ले लिया कि वन अधिकार कानून में उनके ‘शून्य’ दावे हैं. इस पर ग्राम सभा के सदस्यों के हस्ताक्षर भी धोखे से लिए गये. ऐसा इस लिए किया गया ताकि यह ‘निल’ दावों का प्रस्ताव फोरलेन तथा बाँध परियोजनाओं के वन हस्तांतरण दस्तावेजों में NOC के रूप में पेश किया जाए.दुःख की बात तो यह है कि सरकार अब इसी तर्ज़ पर सभी जिलों में कार्यवाही करने का विचार कर रही है ताकि वन अधिकार की NOC मिलने में जल विद्युत् परियोजनाओं को दिक्कत न हो.

  • दावों पर कार्यवाही में प्रशासन का गलत रवैय्या और विलम्ब

गौर तलब है कि वन विभाग की दखलअंदाजी या फिर प्रशासन को कानून के प्रावधानों की पूरी जानकारी न होने की वजह से अधिकतर राज्यों में दावेदारों के दावे गलत प्रमाणों पर खारिज किये गए हैं. ऐसा हिमाचल में भी किन्नौर की लिप्पा ग्राम सभा के 47 दावेदारों के साथ हुआ जब डी.एल.सी के 3 सरकारी सदस्यों ने 3 अन्य जिला परिषद् सदस्य जो की इस समिती के भी सदस्य हैं, उनकी बात को दरकिनार करते हुए गलत और मनगढ़ंत आधारों पर इनके व्यक्तिगत दावे खारिज कर दिए थे. जबकि समिति ने इसी लिप्पा गांव के सामुदायिक अधिकारों को बिना किसी आपत्ति के स्वीकृति दी जिसमें उन्हें ‘प्राथमिक रुप से वनों में रहने वाले, वन निवासी’ माना गया है. अब यह केस शिमला उच्च न्यायालय में चल रहा है. आज हिमाचल में इन 47 दावों के अलावा और कोई भी दावे खारिज नहीं किये गये हैं – बस इन पर कोई कार्यवाही नहीं कर इनको ठन्डे बस्ते में रख दिया गया है जिसके चलते जहां कानून को ले कर थोड़ी जागरूकता भी है वहां लोगों को यह विशवास नहीं कि सरकार इसे कभी भी लागू करेगी.

  • 2002 की नीति का धोखा और जनता के साथ विशवास घात

गौर तलब है कि केंद्र वन मंत्रालय ने 2002 में वन भूमि से अवैध कब्जों को हटाने के लिए आदेश जारी किये थे. इन आदेशों में हिमाचल सहित और कई राज्यों में खलबली मचा दी. हिमाचल सरकार ने 2002 में भूमि नियमितीकरण के लिए नीति भी बनाई ताकि लोगों की बेदखली पर रोक लगे. लाखों ऐसे लोग जिनके राजस्व रिकार्ड में ‘नाजायज़ कब्ज़े’ चढ़े थे – उन्होंने 2002 की नीति के तहत भूमि पर मालिकाना हक़ लेने के लिए मिसलें भरी थीं. परन्तु वन संरक्षण के केंद्रीय कानून ही इतने जटिल थे कि हिमाचल में जिन लोगों ने कब्जों पर पट्टों के लिए मिसलें भरी शिमला उच्च न्यायालय ने उन कब्ज़ेधारकों को हटाने के आदेश दिए. 2002 के धोखे के चलते अब लोगों का विशवास उठ चुका है कि उनको अपनी कब्ज़े की भूमि पर कभी अधिकार मिल पायेगा. बेदखली के डर से भी आज हिमाचल में पात्र दावेदार FRA के अन्तरगत फॉर्म भरने से कतरा रहे हैं. जब वन अधिकार कानून लाया एक मात्र ऐसा कानून है जिसके तहत पात्र दावेदारों को बेदखली से बचाया जा सकता है और जो बाकी कठोर वन कानूनों से सर्वोपरि है.

जनसंगठनों के प्रयासों पर महामारी पड़ी भारी

पिछले 5 वर्षों में वन अधिकार कानून के लिए कांगड़ा, चंबा, किन्नौर, लाहौल, स्पिति, सिरमौर और मंडी में अलग अलग समय पर संघर्ष हुए हैं जिसके चलते राज्य सरकार को इस कानून को लागू करने की घोषणा विधान सभा के दिसंबर 2018 के सत्र में करनी पड़ी थी. राज्य के जन जातीय मंत्री ने मिशन मोड़ में कानून लागू करने का वादा किया था. इसी के बाद अप्रैल 2019 के लोक सभा चुनावों के दौरान भी यह मुद्दा ज़ोरों शोरों से उठाया गया. जन जातीय मंत्रालय को ज्ञापन भेजे गये जिसमें निल दावों की बात उठायी गयी. साथ ही लगातार प्रशिक्षण और जानकारी की कमी की समस्या को भी अलग अलग जिलों से FRC के प्रतिनिधियों ने उठाया. जून 2019 की SLMC बैठक में लिए गये फैसले महत्वपूर्ण थे क्योंकि आखिरकार हिमाचल सरकार के जन जातीय विभाग ने प्रशिक्षण सामग्री बनवाने के प्रयास दिखाए, प्रशिक्षण आयोजित भी किये और सभी विभागों को …. तारिख को प्रपत्र के माध्यम से वन अधिकार कानून को तेज़ी से लागू करने के आदेश दिए गये. दिसंबर 2020 में कांगड़ा DLC ने 6 साल बाद छोटा भंगाल के 28 सामूहिक वन अधिकार दावों को मंज़ूरी दी और यह फैसला भी आशा की किरण  के रूप में आया.

परन्तु जून 2019 के बाद की SLMC बैठक जो 15 फरवरी 2020 को हुयी उसमें चर्चा में दो मुद्दे आये जिससे फिर बात घूम कर वहीं पहुँच गयी जहां से शुरुआत हुयी थी. एक बिंदु में यह टिप्पणी की गयी कि क्रियान्वयन के आदेशों के बाद भी बहुत कम दावे पेश हो रहे हैं और उसकी वजह का अंदाजा यही लगाया गया कि शायद यहाँ पहले ही राजस्व और वन बंदोबस्ती में अधिकार सेटल हो गये हैं और लोगों को कानून में अधिकारों की आवश्यकता नहीं है इसलिए दावे भी नहीं आ रहे. इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले SLMC के उच्च स्तरीय प्रशासनिक अधिकारियों ने यह भी नहीं सोचा कि अभी प्रशिक्षण सामग्री तो पंचायती राज  विभाग तक पहुंची थी और धरातल पर  FRCs में वितरित भी नहीं हुयी, यह भी नहीं सोचा कि ज़मीनी प्रशिक्षण अभी तक हुए नहीं, यह भी नहीं अंदाजा लगाया कि सुप्रीम कोर्ट की 3(2) धारा पर रोक लगने के बाद प्रशासन में वैसे ही इस कानून को ले कर यह बात होने लगी थी कि यह लागू नहीं होने वाले. इस बैठक के बाद राज्य स्तरीय निगरानी समिति की एक और बैठक जनवरी 2021 में हुयी. पर उसमें राज्य स्तर पर क्रियान्वयन को ले कर कोई फैसले नहीं लिए गये. गौर करने वाली बात है की  2020-21 में हुयी दोनों बैठकों में गैर -आधिकारिक जन प्रतिनिधि सदस्य मौजूद नहीं थे.

मार्च 2020 में कोरोना महामारी की खबरें आयीं और 24 मार्च को राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित हो जाने के बाद वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन जैसे थम ही गया हो. ग्राम सभाओं की कार्यवाही और गाँव में जागरूकता के कार्यों में रुकावट आने से और महामारी तथा लॉकडाउन के चलते आर्थिक व्यवस्था भी चरमरा गयी. पर इस दौरान यह बात भी उभर के आई कि स्थानीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में हमारे जंगल और ज़मीन के संसाधन ही हमारा सहारा हैं. फिर भी सरकार की नज़र में आर्थिक स्थिति को सुधारने का मतलब बड़ी जलविद्युत् परियोजनाओं के क्रियान्वयन को गति देना है – और वो काम तो सरकार लॉक-डाउन के बीच में भी चला रही थी. परन्तु जनता के लिए आज भी संसाधनों की सुरक्षा ही जीवनरेखा है. इस संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता हमें आज से पहले इतनी महसूस नहीं हुयी – कोरोना वायरस ने पूरे विश्व का ध्यान इस बात पर आकर्षित किया है कि वनों के दोहन से, जलवायु संकट से नई महामारियां और बिमारियाँ पैदा होने की संभावना बरकरार रहेगी. आम जनता को यह भी विशवास रखना होगा की यह संसाधन हम से बहतर आने वाली पीढ़ियों के लिए कोई और नहीं बचा सकता. लॉक-डाउन के बीच कई ग्राम सभाओं और पंचायतों ने सक्रीय भूमिका निभाते हुए अपने क्षेत्रों को कोरोना मुक्त रखा और आज भी ये प्रयत्न जारी हैं. ऐसे ही हम अपनी ज़मीन और वन संसाधनों का भी अच्छे  ढंग से प्रबंधन व संरक्षण कर सकते हैं. वन अधिकार कानून हमें अपनी आजीविका को सुरक्षित करने का मौक़ा देता है – पर जैसे सरकारें महामारी के बीच जनहित में स्वास्थ्य प्रणाली को सशक्त बनाने में असक्षम रही – ऐसे हर क्षेत्र में ही विफल नज़र आ रही है. अब FRA को फिर से सरकारी एजेंडा बनाने में जनता का काफी जोर लगेगा. और इसे जनता का एजेंडा बनाने में हम सभी संगठनों को जल्द से जल्द सक्रीय होना पड़ेगा.

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